हमारे देश में स्वतंत्रता पूर्व काल में एक निश्चित व्यवसाय एक निश्चित जातिधर्म के लोग ही करते थे। स्वतत्रतापूर्व काल में भारत में बारह बलुतेदार पद्धति थी। लुहार, कुम्हार, चमार, सुनार, तांबट, वानी, दर्जी ऐसे दैनिक जरूरतों के लिए लगनेवाली वस्तु का उत्पादन करनेवाला एक निश्चित वर्ग था। परंपरा से उनके परिवार के अधिकतर सदस्यों को उसका ज्ञान अवगत होता है। एकत्र कुटुंब पद्धति अस्तित्त्व में थी।
पिछली पिढ़ी से अगली (नई पीढ़ी) पीढ़ी को उस व्यवसाय का ज्ञान और कला अपने आप मिलती थी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद के दसबीस साल में काल बदला। आधुनिकीकरण का युग आया। एक निश्चित उद्योग-व्यवसाय पर से निश्चित लोगों का वर्चस्व खत्म हुआ, विश्व के अधिकतर राष्ट्र आजाद हुए । अर्थव्यवस्था को गति मिल गई। भारत जैसे विकसनशील देश ने जागतिक बैंक की सहायता से हमारे देश ने बहुत विकास कर लिया। लोगों का मानसी उत्पन्न बढ़ा ।
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उद्योग–व्यवसाय में शिक्षा का महत्त्व
आधुनिकीकरण के कारण बहुत सी सुख-सुविधाएं उपलब्ध हुई। आजकल तो बडे-बडे शासन का नियंत्रण होनेवाले उद्योग और महामंडल इनका भी निजिकरण हुआ। विकास की गति निरंतर बढ़ रही है। भारत जैसे बहुत जनसंख्या होनेवाले देश में बुद्धिमान मनुष्यों की कमी नहीं है। हमारे देश को दुनिया में पहचाना जाता है।
शिक्षा का महत्त्व क्या है यह समझने के कारण शिक्षा का प्रसार हुआ। भारत की अधिकतर जनता साक्षर हो रही है। शासन ने शिक्षा का प्रसार हो, लोग साक्षर हो जाये इसलिए बहुत-सी सुख-सुविधाएं उपलब्ध करके देने से आज सभी बच्चे सीख रहे हैं। विद्यालय, महाविद्यालये, अंग्रेजी माध्यमों के स्कूल, तकनीकी (तांत्रिक) शिक्षा देनेवाली संस्थाएं वैद्यकीय महाविद्यालय इनका निजिकरण होने से हमारे रुचि के क्षेत्र में करिअर करने के लिए लोगों को शिक्षा के द्वार खुल गए।
बड़े-बड़े शहर में होनेवाली ऐसी उच्च शिक्षाकी ‘सेंटर्स आज छोटे गाँव में भी देखने को मिलती हैं। यातायात की सुविधा सभी जगहों पर होने से जो चाहिए वह शिक्षा हम प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा का प्रसार होने से एक बहुत बड़ा वर्ग हमारे पास तांत्रिक शिक्षा लिया हुआ मिलता हैं।
हमारे उद्योग-व्यवसाय के लिए कम-से-कम हमारे देश में आज की स्थिती में प्रशिक्षित मनुष्यबल की कमी महसूस नहीं होती। इसी कारण आमतौर पर-परदेशी कंपनियाँ खुले आर्थिक धोरण के कारण अपने उद्योग भारत में शुरु करने के लिए प्राधान्य देती हैं। अन्य देशों के मजदूरों की अपेक्षा हमारे मजदूर मेहनती भी होते हैं और कम मानधन पर काम भी करते हैं । इसी कारण परदेसी उद्योग आज भारत की और आरहे है। आप अपने लिए जो मनुष्यबल लेंगे वह एक तो प्रशिक्षित होना चाहिए अथवा उन्हें प्रशिक्षित कराना चाहिए।
अन्न प्रक्रिया उद्योगों जैसे उद्योग-व्यवसाय शुरु करने हो तो उसकी पुरी जानकारी होनेवाले, पूर्व अनुभवी मजदूर वर्ग ही लेना पड़ता हैं। विशिष्ट पदार्थों के (व्यंजनों के) विशिष्ट जायके के लिए अलग-अलग फॉर्मुलों का उपयोग करनेवाले, हमेशा नए-नए प्रयोग करनेवाले तज्ञ और प्रशिक्षित मनुष्यबल लेना पड़ता है।
उत्पादित उद्योग-व्यवसाय-शुरु करना हो तो आप को खुद ही प्रशिक्षित होना ही चाहिए। अनुभवी मनुष्यबल से काम करके लेना ही है परंतु हमने नियुक्त किया हुआ अनुभवी मजदुर क्या कर रहा हैं इसकी भी पूरी जानकारी पूर्व अनूभव से आपको होनी ही चाहिए।
किसी पर निर्भर रहकर उद्योग शुरु न करते हुए समय पडने पर प्रशिक्षित मजदूर अनुपस्थित रहा तो उसके कारण रुकनेवाला तांत्रिक काम हमें खुद करना चाहिए। सभी मामलों में उत्पादक यदि दूसरों पर अवलंबित रहेगा तो उसके उद्योग की प्रगती नहीं होगी अपने उत्पादन के कच्चे सामान की खरीदी से लेकर उसके मार्केटींग तक की कोई भी जिम्मेदारी आपको निभानी (सँभालनी) चाहिए ।
अपने उत्पादन की सभी तकनीकी बातें और व्यावहारीक बातें हमें आनी चाहिए । जहाँ जरुरत है वहाँ मैं खुद काम करूँगा ऐसी मेहनत की तैयारी रखो। मेहनत करने की तैयारी और क्षमता के बिना उद्योग- व्यवसाय में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। हमें कोई एक नौकरी करनी हो तो उसके लिए हम कितनी शिक्षा लेते है यह हमें मालूम ही है। छोटे क्लार्क की नौकरी करनी हो तो आज उसके लिए स्नातक (ग्रॅज्युएट) होना जरुरी है ।
क्लार्क जैसे तृतीय श्रेणी के कर्मचारी को चार-पाँच हजार की नौकरी प्राप्त करने के लिए स्नातक (ग्रॅज्युएट) तक लगभग पंद्रह साल शिक्षा मतलब प्रशिक्षण लेना पड़ता हैं। तो जिस व्यवसाय से हम अपना खुद का करिअर निर्माण करनेवाले होते है, अपने परिवार के सभी प्रकार के गुजारे के, उनके जरुरतों का नियोजन करनेवाले होते है, भावी पीढ़ी का भविष्य निर्माण करनेवाले होते है ! उस उद्योग क्षेत्र में प्रवेश करते वक्त बिना प्रशिक्षण, बगैर अनुभव लिए जाकर चलेगा क्या? नहीं।
इसके लिए जो उद्योग-व्यवसाय चुना है उसका पूरा प्रशिक्षण हो । ऐसी प्रशिक्षण देनेवाली संस्थाएँ आज हमारे आसपास दिखाई देती हैं। औद्योगिक क्षेत्र का उत्पादन लेनेवाले हो तो आयटीआय जैसी संस्था अलग-अलग प्रकार के कोर्सेस चलाती है। उनके पास शास्त्रशुध्द ऐसा प्रशिक्षण लो।
उद्योग की (व्यवसाय की) शुरुवात करने के बाद आपको उस उद्योग के संबंध में अलग-अलग पहलूओं का (बातोंका) प्रशिक्षण ज्ञान प्राप्त करने के लिए आपके पास समय नहीं होता। औद्योगिक उत्पादन लेते वक्त उसका शास्त्रशुद्ध प्रशिक्षण हमने लिया हो तो उत्पादन शुरु होने के बाद कुछ बिघाड़ आया तो उसके लिए वह बिघाड दुरुस्त करनेवाला तज्ञ व्यक्ति आने तक हमें राह देखनी नहीं पड़ती।
एम.सी.ई.डी. जैसी संस्था बेरोजगारों को, नवउद्योजकों आज ऐसा तकनीकी (तांत्रिक) और व्यावहारिक प्रशिक्षण देती है। ऐसी संस्था मेहनती और नवउद्योजकों को ढूंढकर उन्हें प्रोत्साहन देती हैं। इसके सिवा प्रशिक्षण के द्वारा सफल उद्योजक तैयार करती हैं। उनकी सहायता और मार्गदर्शन जरुर लो।
एम.सी.ई.डी. जैसी संस्था देश में उद्योजकता का प्रसार, प्रचार करने से लेकर उद्योजकता के क्षेत्र में संशोधन, उद्योजकता से संबंधित सलाह-सेवा, प्रशिक्षण, तांत्रिक जानकारी देती है। उनकी उद्योजकता के विषयकी-पत्रिकाएँ अत्यंत उपयुक्त और फायदेमंद है नवउद्योजकों ने उसका उपयोग करके लेना चाहिए।
व्यवसाय से संबंधित सभी कौशलें आपके पास होनी चाहिए
आपको क्या करना है,और उद्योग में कौन-सा लक्ष्य तय करना है इसका सुस्पष्ट उद्देश्य आपके पास हों तो हम शुरु करनेवाले व्यवसाय के लिए सब आवश्यक बातें हमारे पास है क्या, सभी सुख-सुविधाएँ हमारे पास है क्या इसकी जाँच-पड़ताल कर लो।
जो उद्योग हम शुरु कर रहे हैं उसका प्राथमिक ज्ञान हमें हो तो उस प्राथमिक ज्ञान के बल पर एकदम उत्पादन शुरु मत करो। उत्पादन से व्यवसाय तक लगनेवाली सभी कौशलें आपके पास है क्या यह देखो। न हो तो ऐसी कौशले आत्मसात करो।प्रशिक्षित हो जाओ।
जिन बातों की आपको जानकारी नहीं वह बात उस क्षेत्र के तज्ञ लोगों को पूछो । उनकी सलाह-मार्गदर्शन लो । जिन बातों का आपको ज्ञान नहीं, जानकारी नहीं उन बातों को अन्यों से पुछने में हीनता मत समझो। ज्ञान अन्यों से अवश्य लो और जरुरत होनेवाले को दो भी। ज्ञान देने से कम नहीं होता, अन्यों को जानकारी देने से अपना ज्ञान भी बढ़ता हैं।
हमेशा क्रियाशील रहना होता है, क्योंकि क्रियाशील मन गलतियाँ ढूंढता है तो अक्रियाशील मन गलतियों की पुनरावृत्ती करता है। बुद्धि और ज्ञान का उपयोग करते वक्त उनमें (बुद्धि और ज्ञान में) बढ़ोत्तरी करो। क्योंकि धन तो अन्य भी कुछ मार्गो से प्राप्त कर सकते हैं । लेकिन बुद्धि चतुरता के सिवा आपने प्राप्त की हुई संपत्ति अनमोल नहीं होती।
बुद्धि कौशलता के बिना आपकी खुद की पहचान भी नहीं होती और समाज में इज्जत और आदर भी नहीं मिलता। क्रियाशील व्यक्ति खुद आत्मनिरीक्षण करके खुद की गलतियाँ ढूँढता है ।
शारिरीक मेहनत और बौद्धिक मेहनत दोनो व्यवसाय के लिए महत्वपूर्ण होते है
उद्योग-व्यवसाय में दो प्रकार की मेहनत – एक शारिरीक मेहनत और दूसरी बौद्धिक मेहनत करनी पड़ती हैं। सिर्फ बहुत शारिरीक मेहनत करने से उद्योजकों की दुनिया में प्रगती के लिए उपयोग नहीं होता। तो शारिरीक मेहनत के साथ-साथ आपको बौद्धिक मेहनत करनी पड़ती है। थोडी शारीरीक और बौद्धिक मेहनत अधिक करके उद्योग विश्व में अपना लक्ष्य निश्चित तय कर सकते हैं।
आज जानकारी और तंत्रज्ञान का युग है । ज्ञान के द्वार हर एक के लिए खुले हैं। संगणक-इंटरनेट के कारण सारा विश्व करीब आया है। संसार के कोने-कोने की हमें जो चाहिए वह जानकरी घर बैठे मिल रही हैं । काल(युग) बदल चुका है, आप भी खुद को बदलो।
काल (युग) के साथ जो खुद को बदलता नहीं वह पीछे रहता हैं। रोज नया- नया तंत्रज्ञान आ रहा है, रोज नई-नई खोजें हो रही हैं। नवीनता का स्वीकार करो, नवीनता का प्रत्यक्ष उपयोग करो। नया तंत्रज्ञान आत्मसात करो। आधुनिकता के कारण लोगों का नविनता की ओर और आधुनिक तत्रज्ञान की ओर झुकाव होने से उत्पादन में जरुरत के अनुसार उसकी गुणात्मकता, कीमत, पँकीग, विज्ञापन इनमें समय-समय पर जरुरत के अनुसार बदल करो ।
बाजार में उद्योग विषयों पर हजारों किताबें उपलब्ध हैं। उनका अध्ययन करो। प्राचिन काल में लघुउद्योगों की जानकारी मिलने वाली किताबें मिलती नहीं थी। परंतु आज हमें जो चाहिए वह एक ही खास विषयों पर की तज्ञ लोगों की किताबे बाजार में भरपूर प्रमाण में उपलब्ध हैं।
सिर्फ किताबें पढ़कर व्यवसाय उत्पादन शुरु कर नहीं सकते । उसके लिए प्रत्यक्ष “प्रैक्टीकल” (व्यवहारी) ज्ञान और अनुभव लेना पड़ता है। ऐसी किताबें-पढ़कर व्यवसायों का चयन करते वक्त उस लिखित ज्ञान के बलपर प्रत्यक्ष उत्पादन मत लो। क्योंकि किताबों की जानकारी और हमारा भौगोलिक पर्यावरण, नियोजन इसी कारण प्रत्यक्ष उत्पादन और उसकी गुणात्मकता में फर्क पड़ सकता है।
क्योंकी किताब पढ़कर उसमें से हमें जो चाहिए वह हम ले सकते हैं। उसमें दी गई सुचनाएँ, सलाह इनको हम भूल जाते हैं। किताबों का मूल उद्देश वह पढ़नेवालों को प्रेरणा देना, उनके ज्ञान को बढ़ाना, पाठक को उसका भविष्य बनाते हुए आनेवाली दिक्कतें-समस्याएँ- इनसे वह समय से पहले जागरुक हो जायें इसलिए सूचित करना होता हैं।
उलझे हुए पाठक को मार्ग दिखाकर, उसे उसके लक्ष्य, उद्दिष्ट्य के मार्ग पर लाकर छोडना, उसके उद्देश्य पूर्ति के लिए उसे सलाह मार्गदर्शन और प्रेरणारुपी सहायता करना यह भी किताबों का उद्देश्य होता हैं। इसलिए हमें भी सिर्फ किताबी ज्ञान के बलपर उद्योग शुरु न करते हुए प्रत्यक्ष प्रशिक्षण और व्यावहारिक ज्ञान इनका अनुभव लेना ही पडेगा।
अदाज’ इस शब्द का आधार लेकर किसी व्यावसायिक ने यदि अपना उद्योग व्यवसाय शुरु किया तो उसे निश्चित नुकसान होता है। इसी कारण नवउद्योजक को उद्योगशील होते समय पुरा-सही ज्ञान और अनुभव, जानकारी इसके ठोस आधारपर द्योगशील होना पड़ता हैं।
अपने उद्योग – व्यवसाय विषय का पूरा ज्ञान हमारे पास हो तो हमारा आत्मविश्वास बढ़ता हैं और मनुष्य को खुद के ज्ञान- जानकारी, अनुभव इस बारे में आत्मविश्वासी हो तो सफलता के चोटी तक जाते वक्त उसे आनेवाली दिक्कतें-समस्याओं पर मात करना संभव होता है।
आत्मविश्वास न हो अथवा अत्याधिक आत्मविश्वास हो तो मिलनेवाले अवसरों के साथ हाथ में आनेवाली सफलता से दूर रहने का डर रहता हैं। अनुभव यह सबसे श्रेष्ठ गुरु होता हैं। अनुभव यह बात संसार में सिर्फ प्रत्यक्ष कृति से, प्रत्यक्ष प्रयत्न से मिलता हैं। उद्योग विश्व में प्रवेश करने से पहले उस क्षेत्र का अच्छा अनुभव हमारे पास होना जरुरी है।
बहुत बार ऊपरी तौर पर लिया हुआ प्रशिक्षण व्यावसायिक को “प्रैक्टीकल बिझनेस” में उपयोगी नहीं पड़ता, तो उसका अनुभव काम आता हैं। वास्तविकता से समझौता करते वक्त प्रत्यक्ष परिस्थिती का सामना करते वक्त पुस्तकी ज्ञान, ऊपरी तौर का प्रशिक्षण इसका उपयोग न होते हुए व्यावहारिक दृष्टी से उस उद्योजक को होनेवाले प्रत्यक्ष अनुभव से उस परिस्थिति पर मात करना(हावी होना) सीखाता हैं।
जिसमें से गैरो को बुरे अनुभव आयें हैं, गैरों का नुकसान हुआ है ऐसी बातें अत्याधिक आत्मविश्वास से करने गये तो आपको नुकसान सहना पड़ता हैं। ज्ञान प्राप्त करने के लिए अध्ययन और प्रशिक्षण की जरुरत होतो व्यावहारीक चतुरता आने के लिए आपको प्रत्यक्ष अनुभव ही होना जरुरी है।
अनुभव से मनुष्य को एक सक्षम व्यावहारिक चतुरता आती है। पूर्वा अनुभव से उद्योग-व्यवसाय में लिए हुए निर्णय संभवतः गलत नहीं होतें। हम प्राप्त करनेवाले सफलता की परिभाषा सिर्फ सफलता ही प्राप्त करेंगे ऐसी हो तो अनुभव के सिवा आपका दुसरा बड़ा गुरु नहीं है।
संसार के हर मनुष्य की सफलता का रहस्य मतलब उसका उस क्षेत्र का होनेवाला ज्ञान, जानकारी और शिक्षा यह होता है। चुने हुए व्यवसाय उसकी सफलता का मुख्य कारण होता है। व्यवसाय की शुरुवात करते ही हमने जो उद्योग-व्यवसाय चुना है उसका पुरा ज्ञान हमें हैं क्या इसका परीक्षण खुद हमें ही करना है।
व्यवसाय-उद्योग से कुछ उत्पादन निर्मिती हो तो उसका तकनीकी ज्ञान, बाजार का अध्ययन, जानकारी, जनसंपर्क, मार्केटींग का ज्ञान हमें कितना हैं इसका आत्मपरीक्षण करना जरूरी है । उत्पादन का तांत्रिक (तकनीकी) ज्ञान हमें न हो तो उत्पादन शुरु करते वक्त और उत्पादन शुरु होने के बाद भी हमें बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
व्यवसाय में स्वयंप्रशिक्षित होना कितना जरुरी है
“सफल उद्योजक के सफलता का कारण यह खुद स्वयंप्रशिक्षित होने में होता हैं।” उद्योजक यदि तकनीकी दृष्टी से (तांत्रिक दृष्टि से), मशिनरी, उत्पादन शृंखला, बिक्री व्यवस्थापन, प्रशिक्षित मनुष्यबल, नियोजन इसमें कुशल हो तो वह व्यवसाय में निश्चित ही सफल होता हैं। क्यों की उसके पास काम करनेवाले कुशल, अर्धकुशल, अकुशल, मजदूरों से वह उसको जो चाहिए उस पद्धति से काम करके ले सकता है।
उत्पादन का तकनिकी ज्ञान, मार्केटींग का टेक्निक, बाजार का अध्ययन, ग्राहकों की माँग, रुचि, व्यावसायिक स्पर्धा उसका यदि उसे पूर्वज्ञान, अनुभव हो तो अपना माल कहाँ, कैसे बेचना है और स्पर्धा में कैसे टिकना हैं यह उसे समझता है। अप्रशिक्षित उद्योजक बाजार के व्यावसायिक स्पर्धा में टिक नहीं सकते।
परिणामतः उद्योजक नुकसान में (घाटे में) आता है इसलिए उत्पादक उद्योजकने व्यवसाय चुनने से लेकर उसका उत्पादन करके बिक्री होने तक सभी शृंखलाओं में प्रशिक्षित होना जरुरी है। व्यावसायिक प्रशिक्षण बहुत-सी सरकारी और निजी संस्थाएँ देती हैं।
कुछ तज्ञ लोग प्रशिक्षण वर्ग भी चलाते हैं। उनके पास प्रशिक्षण लिजिए । तज्ञों की सलाह- मार्गदर्शन लिजिए । सफल उद्योजकों से मिल-जुलकर, उनकी भेंट लेकर व्यावहारिक चर्चा किजिए। व्यापारी, वितरक, बिक्रेते इनसे मिलकर उन्हें अपने उत्पादन से क्या प्रॉफीट (फायदा) मिलेगा इसकी जानकारी दिजिए।
बाजार की स्पर्धा का उसी कारण आकलन होगा। ग्राहकों की रुचि-पसंदी समझती हैं। बाजार में हमारे उत्पादन को कितनी माँग हैं, स्पर्धा कितनी है इसका अंदाज आता है। इसी कारण प्रशिक्षण लेना आवश्यक ही है।